“खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब”
ये जुमला दशकों से भारत में अधिकांश खेलों की दयनीय स्थिति का आईना दिखाता रहा है. क्रिकेट को छोड़ अन्य भारतीय खेलों और इनसे जुड़े कई भारतीय खिलाड़ियों की स्थिति आशा के अनुरूप नहीं है. अक्सर समाचारों में किसी न किसी खिलाड़ी की दुर्दशा के बारे में जानकारी मिल ही जाती है. कई भारतीय एथलीट ऐसे हैं जो आज मुफ़लिसी में जी रहे हैं. उनमें से कई भूख की आग को मंद करने के लिये अपनी रूचि से इतर कोई छोटा-मोटा काम करने को विवश हैं और कई तो मुफ़लिसी के भँवर में फँसे होकर भी उम्मीदों का दामन थामे हुए हैं.
ऐसे ही एक संघर्षशील एथलीट हैं विरेंद्र सिंह. गूँगा पहलवान के नाम से मशहूर विरेंद्र ने अपनी असक्षमताओं के बावजूद वर्ष 2005 में मेलबॉर्न और वर्ष 2013 के डीफलिम्पिक्स में स्वर्ण पदक जीता. इससे पहले अर्मेनिया में वर्ष 2008 में आयोजित होने वाले वर्ल्ड डीफ रेसलिंग चैम्पियनशिप में उन्होंने रजत पदक और वर्ष 2009 के ताइपेई डीफलिम्पिक्स में कांस्य पदक जीता.
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विरेंद्र उन बधिर भारतीय रेसलरों में अकेले हैं जो शरीर से सक्षम रेसलरों से मुकाबला कर सकते हैं. जीवनयापन के लिये विरेंद्र अकुशल पेशेवरों से मुक़ाबला करते हैं जिसके लिये उन्हें 5,000 से 1,00,000 तक की आय मिल जाती है. इसके जरिये ही वो अंतर्राष्ट्रीय मुक़ाबलों में भी हिस्सा लेते हैं. लेकिन यह विडम्बना है या लोकशाही की अपरिपक्वता की वर्ष 2016 के रियो ओलम्पिक्स में उनको शामिल न करने के लिये यह तर्क दिया जा रहा है कि वो रेफरी की आवाज़ सुन नहीं सकते. जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विरेंद्र की जीतों के कारण ही मंत्रिपरिषद ने भारत की खेल नीति में बधिरों के लिये खेलों की शुरूआत की.
विरेंद्र के समर्थन में गूँगा पहलवान के नाम से डॉक्यूमेंट्री बना कर रिलीज़ की गयी है ताकि अगले वर्ष होने वाले रियो ओलम्पिक में वो हिस्सा लेकर बेहतरीन प्रदर्शन कर सकें.Next…..
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